Friday, September 2, 2011

अरे ! मुरख निपट गवांर |


अरे ! मुरख निपट गवांर |
बिगरत आपु बिगरत मो कहँ, नेकु करत विचार |
कोटि-कल्प भटक्यो ज्यों शुकर, विष्ठा- विषय मझार |
बिनु सेवा जहाँ पाईय मेवा, गयो तेहि दरबार |
दोउ कर-कमल पसरी निहारती, तोहिं वृषभानुदुलर |
अस अवसर नर देह सुदुर्लभ, मिलत बारम्बार |
साधन बिनुहीं 'कृपालु' दरवत जो, को अस सरल उदार ||

भावार्थ :- हे मन ! तू वास्तव में अत्यन्त ही मुर्ख एवं नासमझ हे | तू आप भी अपना नाश कर रहा हे, साथ ही मेरे भी नाश कर रहा हे | तू इस विषय में थोडा सा भी विचार नहीं करता | तुझे सांसारिक विषय- वासनारूपी विष्ठा में शुकर की तरह भटकते हुए करोड़ों कल्प बीत गए, फिर भी कुछ भी पा सका | जिन किशोरी जी के दरबार में बिना साधन के ही तू सब कुछ पा जाता , उस दरबार में तू हटवश कभी गया | तुझे वृषभानुनंदिनी  अपनी दोनों कोमल भुजाओं को पसरे परख रही हैं | ऐसा अवसर एवं देवदुर्लभ मानव-देह तुझे बार-बार मिल सकेगा | 'कृपालु' कहते हैं की सबसे बड़ी बात तो यह हे की वृषभानुनंदिनी के सिवा ऐसा सरल एवं उदार चित्तवाला वुर तुझे कौन मिलेगा जो बिना साधन के ही शरणागत को सदा के लिए अपना बना ले |

राधे राधे

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