Friday, September 2, 2011

चपल तोरी, चित्वानी की बलि जाऊँ |


चपल तोरी, चित्वानी की बलि जाऊँ |
देखतहूँ  नहीं देखत पुनि पुनि, पियत नेकु अघाऊँ |
चुवत प्रेम-पियूष निरंतर, पियत नेकु अघाऊँ |
दृग सोई श्रीपति के यद्यपि पेई, तेहि लखी नहीं सुख पाऊँ |
मुखहूँ सोई श्रीपति के पेई नहीं, मृदु मुसकनी मन भाऊँ |
जब लोई मिलई 'कृपालु' सीता क्यों ? तब लोई हौई  गुड खाऊँ ||

भावार्थ :- हे चपल श्यामसुंदर ! में तुम्हारी मधुर विलोकानी पर बलिहार जाता हूँ | बार-बार देखने पर भी एसा प्रतीत होता हे की अभी नहीं देखा हे किउंकि देखने की पिपासा प्रतिखयन बढती जाती हे | तुम्हारी नेत्रों से निरंतर प्रेमामृत चूता रहता हे, जिसे सदा पिने पर भी तृप्ति नहीं होती | यद्यपि तुम्हारे सामान ही सुन्दर एबम निर्मल नेत्र भगवन महाविष्णु के हैं किन्तु उन्हें देखकर एसा सुख नहीं मिलता | यद्यपि तुम्हारे ही सुख के सामान महाविष्णु  का भी मुख हे उनकी मधुर मुस्कान से मन मुग्ध नहीं होता | 'कृपालु' कहते हैं की दोनों एक तत्व होते हुए भी जब तक मिश्री मिलती हे गुड खाने को जी नहीं करता |

राधे राधे

No comments:

Post a Comment