Wednesday, August 31, 2011

करेगो को कारे ते ब्याहु



करेगो को कारे ते ब्याहु |
तुक मुख दर्पन देखू कन्हेया , प् छे दुलहिनी चाहू |
बनी बटमार ठगन नित वानितनी, बनत साहू को साहु |
निज अवगुण-गोपन हित झुठेहीं, सौ सौ सौगंध खाहु |
सिगार ब्रज के सखन सखिन ते, रार करत अघाहु |
कह 'कृपालु' कहूँ करी कुबरी, मिलिहहि जनि पचिताहु ||
भावार्थ - छोटे से ठाकुरजी को चिढाने के लिए सखियाँ कहती हैं - " अरे कन्हेया ! तुम बार-बार मईया से ब्याह करने को कहते हो किन्तु तुम सरीखे काले से कौन ब्याह करेगा ? जरा शीशे में मुहँ देख लो फिर दुल्हिन माँगो | मार्ग में डकईटों  की भाँति ब्रजांगनाओं के साथ ठगोरी करते हो और फिर बहुत ही भोले-भले बनकर अपने अवगुणों को छिपाने के लिए झूठमुठ  ही स्यिक्दों  सौगंध खाते हो | समस्त ब्रज के समस्त सखाओं एवं सखियों से झगडा करते हो, भला इसी करतूतों पर तुम से कौन ब्याह करेगा?" 'कृपालु' कहते हैं- 'अरे कन्हेया ! तुम निराश हो | संसार में कोई - कोई कलि कुबड़ी मिल ही जाएगी |'

राधे राधे

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