Wednesday, August 31, 2011

अखियाँ, सखी ! या रूप लुभानी |


अखियाँ, सखी ! या रूप लुभानी |
देखन चाहत कमल दल लोचन , सुनन चाहत मृदुबानी |
होंऊ समुझावत हारी थकी पयी, इन ने इक मानी |
नहीं सुखत एकहूँ छीन कहँ सखी ! इन अखियन को पानी |
तजि दिनी तरुण सम इन निगुरिन, लोक-लाज, कुल-कानी |
जो 'कृपालु' हानि थी हो गई, अब का होनी जानी |

भावार्थ :- इक विरहिणी कहती हे- अरी सखी ! मेरी आँखें श्यामसुंदर के सुन्दर रूप पर मोहित हो गई हे | अब तो सखी ! ये केवल श्यामसुंदर को ही देखना चाहती हे | इन्ही की देखा-देखि कान भी इक मात्र श्यामसुंदर की ही मधुर वाणी सुनना चाहते हैं | मेयिने अनेक प्रकार से इन आँखों को समझाया किन्तु इन्होने मेरी इक भी नहीं मानी | इन आँखों के असून इक ख्यंण के लिए भी बन्द नहीं होते | इन्होने अनादिकालीन लोक एबम कुल की लज्जया को तृण के सामान त्याग दिया | अब में क्या करूँ ? इतने में 'कृपालु' ने कहा- अरी सखी ! जो होना था सो हो गया, अब कुछ नहीं हो सकता |

राधे राधे

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