Tuesday, October 25, 2011

लाडलिहिन लीला ललित रसाल |

लाडलिहिन  लीला ललित रसाल |
तुत्रिन बतियाँ कहती मातु ते, पकरी चिबुक अरु भाल
मईया ! गई रही खेलत वन, संग सखिन ब्रजबाल |
इतनेहीं माहीं अनेक्नी नौतनु, आई तहाँ ततकाल |
देखन लगीं मोहिं सब इकटक, पुनि चुमेहूँ मम भाल |
पुनि कानन कछु कहीं पस्पर, भई शंक मोहिं हाल |
पुनि 'कृपालु' अस कहत चलीं भाल, जोरी लालिहीं-लाल  ||

भावार्थ - श्री किशोरी जी की बाल लीला सरस से भी सरस हे | क्जिशोरी जी कीर्ति-मईया की ठोढ़ी एवं उनका ललाट पकड़कर तोतली भाषा में कहती हैं - "आरी मईया आज में ललितादिक सखियों के साथ वन में खेलने गई थी | वहां अनेक युवतियों का अचानक ही एक झुण्ड आ गया और वे सब - घुर घुर कर मुझे देखने लगीं | फिर प्रत्येक ने मेरे गाल का चुम्बन किया | पश्चात आपस में कुछ कानाफूसी की , कदाचित मेरी कोई बुराई की |'कृपालु के शब्दों में पुनः वे सब युवतियां यह कहती हुयी चली गई की लाल एवं लाली की जोरी बनी ही अनूठी रहेगी |

No comments:

Post a Comment